दशहरा का मेला भी अब पहिले जैसा मनसाइन नहीं रहा। जलेबी और छोले-चाट से पूरा मेला गमकता था। ऊपर से चटकारा वाला गोलगप्पा दिमाग ऐसे झनझना था जैसे कि चच्चा ने नोटबन्दी का ऐलान कर दिया हो। खटाई और मिर्ची ठीक उसी तरह लगती थी जैसे कि सरकारी वादे के साथ सर्जिकल स्ट्राइक।
फिर भी, फौजी के माफिक कोसों मार्च कर मेला में धंगड़मस्ती करते हुए अपने दोस्तों के साथ दूसरी टोली के गुब्बारे को ऐसे सुई घुसाते थे जैसे कि दुर्गा माता ने भाला फेंककर शुंभ की छाती विदीर्ण की थी। बहुत मज़ा होता था। खुले आसमान के बादशाह होते थे। लेकिन दोस्त अब शादीशुदा हो गए हैं और अपने विक्रम लैंडर के साथ ही छोटे छोटे उपग्रह को लिए मेले का चक्कर काट रहे हैं ; और हम राहुल गांधी टाइप ठलवागिरी।
अब गाँव जाकर भी करते तो क्या करते? जो बचे थे, इसबार वो भी निपट लिए और ससुराल में राम जी टाइप वाला आदर-सत्कार पा रहे हैं । उधर ससुराल वाले भी अलग ही मूड में ,कि बेटा करलो मौज मस्ती लड़ना तो रावण से ही है। अब लड़ो, कटो, मरो ;हमने अपना पीछा छुड़ा लिया। राम जी ने तो दस सिर वाले रावण को मारा था पर अबकी बार रावण पहिले से ज्यादा विलराल है।
काशी का अस्सी (किताब) - रिव्यू
लेकिन हम सख्त लौंडे, डरते नहीं। पर हाँ, पिघल ज़रूर जाते हैं। हमें रावण का डर नहीं है, सीता की बहुत फ़िकर है। इस फ़िकर ने जीभ को बेस्वादी बना दिया है। अब तो ताड़का भी आती है तो कहते हैं - हे ताड़िका ! हमें ताड़ो। मैदान में खाली दिग्गी ही नहीं हम भी हैं। यह जानते हुए भी कि इन ताड़िकाओं के पास मायावी अस्त्र के साथ भारत सरकार द्वारा दिये कई घातक हथियार भी हैं।
लेकिन करें भी तो क्या करें। घरवाले 'राधे-राधे' की जगह 'नौकरी - छोकरी' का माला जप रहे हैं। इतने दिनों का हमपर किया इन्वेस्ट का चक्रवृद्धि ब्याज सहित जो लेना चाहते हैं। नौकरी- वेकेंसी नहीं है, मंदी है , बाज़ार चौपट है कहने पर कहते हैं पकौड़े की रेड़ी लगा ले। अब घरवाले को कैसे बताएँ कि रोटी हमारी भारत-पाकिस्तान के मुहाने को छूती है । कहीं पकौड़े का मुँह बिदक गया तो हम मुँह दिखाने के लायक भी नहीं बचेंगे।
अतः हे देवी ! हमें ताड़ो । हमें निहारो। विनती है हमें उबारो।
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