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नेहरू पटेल की इस कहानी में छुपा है स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी पर सवाल उठाने वालों के जवाब

बात 2014 के आम लोकसभा चुनाव के पहले की है जब देश में एक अलग बयार चली थी। यह महज सिर्फ एक हवा का झोंका मात्र नहीं था वरन इसने एक झंझवात का रूप लिया जिससे कई दशकों की बनी बनाई एक मजबूत इमारत को गिरा दिया। और सबसे मज़े की बात यह थी कि इस इमारत के गिरते ही देश मे चहुओर एक अलग सी प्रकाश दिखाई दी। एक नई आशा की किरण ने देश हर वर्गों के लोगों में उत्साह और खुशियां भर दी। कई लोगों ने तो इसकी तुलना आज़ादी के वक़्त मिली चैन-सुकून से कर दी, बात भी कुछ हद तक सही ही थी।

आज की बात इसी चुनावी बयार में चली एक संकल्प की करंगे जो आज चार साल बाद फिर सुर्खियों में है। बात है 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' की। जिस 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' का बखान करते मीडिया और देश के  लोग अघाते नहीं थे, जिसकी तुलना अमेरिका के स्टेच्यु ऑफ लिबर्टी से भी कई अर्थों में हुई ।इतना ही नही इसे भारत के एक अप्रतिम  मिसाल के तौर पर देखा जा रहा था।  पर ऐसा क्या हुआ कि जिस प्रतिमा को भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का नवीनतम उदाहरण  समझा गया था वही आज निंदा का कारण बन गया और ऐसी निंदा भारत की संस्कृति में कहाँ तक उचित है?

क्या है  स्टेच्यू ऑफ यूनिटी
क्या है स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी

नेहरू पटेल की इस  कहानी में छुपा है स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी पर सवाल उठाने वालों के जवाब  

सुने-सुनाये या तथ्यविहीन विचार हमारे हो या आपके समाज मे कोई खास मायने नहीं रखता है। समाज और सामाजिक परिवेश में किसी बात की सत्यता उसकी तथ्यपरख सुचिता के साथ होती है। जिसके लिए टेक्स्चुअल, ऑडियो या वीडियो एक महत्वपूर्ण माध्यम है पर कई बार ये माध्यम भी एक एकतरफा भावनाओं का शिकार होता है फिर भी ये ही एक सामाजिक सत्यता का आधार है।
 भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई सपूतों ने अपनी जीवन की बाजी लगाकर भारत मे लोकतंत्र की स्थापना का बिगुल फूँका और कामयाब रहे। उन्हीं लोगों में से सरदार पटेल का नाम बड़े ही अदब से लिया जाता है जिसने भारत के एकीकरण में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और इसी कारण से उन्हें 'भारत का बिस्मार्क' भी कहा जाता है। इसी एकीकरण के दौरान जब जूनागढ़ ओर हैदराबाद के निज़ाम ने भारत मे विलय करने से मना किया तो इस सन्दर्भ में सरदार पटेल ने कहा था की " वह भारत के पेट में तकलीफ बर्दास्त नहीं कर सकते।  "

प्रधानमंत्री नेहरू उनकी इस सख्ती से खुश नहीं थे. पर पटेल अपने वाक्य से डिगे नहीं और अपनी सूझ-बूझ से इन्हें भारत का अभिन्न अंग बनाया। राष्ट्रीय एकता के सम्बन्ध में सरदार पटेल जहां कड़ाई से निपटते थे वहीँ उनके लिए त्याग और तत्परता का एक असाधारण गुण भी दिखाते थे.  लेकिन इतने जानने के बावजूद भी नेहरूवादी और मार्क्सवादी ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं जैसे इस प्रतिमा ने उनकी दुखती नसों पर हाथ रख दिया हो ?

स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की तस्वीर 

Statue Of Unity is located on a river island of Narmada river in MP.

स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की ऊंचाई 
The height of Statue Of Unity is 182 m and its contract was given for 2989 crore.

पटेल के ये गुण और सोच नेहरू के एकदम उलट थे। याद कीजिये,  साल १९२८, १९२९, १९३६, और १९४६ में ऐसे मौके आये जब उन्हें गाँधी जी  के कहने पर नेहरू जी के लिए रास्ता छोड़ना पड़ा।  १९४६ में जब यह तय था की जो कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जायेगा अंग्रेज उसे ही प्रधानमंत्री बनाने के लिए आमंत्रण करेंगे इस पर जब पार्टी ने १५ प्रदेश की कांग्रेस समितियों से इसके लिए नाम मंगाए तो १५ में से १२ समितियों ने पटेल के नाम पर नाम मुहर लगाए और तीन राज्य अनिर्णय की स्थिति में थे।

  इसे अगर अलग शब्दों में कहे  तो कांग्रेस की प्रदेश समिति नेहरू को  अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनाने के खिलाफ थी।  नेहरू जी इससे खींझ गए और उन्होंने गाँधी जी  से कहा की वह किसी के नायब (अंदर) बनकर काम नहीं करेंगे।  नेहरू की तरफदारी में गाँधी जी के हस्तक्षेप से पटेल को फिर से इस होड़ से हटना पड़ा। आजतक  गाँधी-नेहरू के वफादार इतिहास के इतिहासकारों ने इन तथ्यों को आमलोगों से  छुपाते रहे।  आज अगर सरदार पटेल की प्रतिमा पर इतनी राशि खर्च क्यों की गयी, पूछनेवाले को पता होती तो क्या वह सवाल उठाते ?

पटेल के निधन के बाद उनके प्रति नेहरू का रवैय्या कैसा था ?

१५ दिसंबर १९५० को जब पटेल जी मृत्यु हुयी  तब नेहरू ने अपने अधिकारीयों को निर्देश दिया की वह उनकी अन्येष्ठि में शामिल होने के लिए मुम्बई न जाएँ.  इससे भी ज्यादा उन्होंने निर्देश दिया की उनको दी गयी कर तुरंत विदेश मंत्रालय को वापिस किया जाये।  उनकी इस मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण यह है की नेहरू ने खुद को १९५५ में अपने आप को भारत रतन  से सम्मानित किया वहीँ पटेल को चंद्रशेखर सरकार में १९९१ में दिया गया।  कुछ साल पहले दैनिक जागरण में  छपे इस विषय पर एक लेख ने बड़ा हो हल्ला मचाया था पर तत्कालीन सरकार ने इसे दबा दिया। सिर्फ पटेल ही नहीं ऐसे कई  नौनिहाल हमारे  बीच  थे जो नेहरू के समकक्ष और कई तो उनसे कई गुना बेहतर थे पर नेहरू के इस लोभ को कोंग्रेसियो के चमचों ने हमारे बीच नहीं आने दिया।
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बाएं से: सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और पंडित नेहरू।  

थोड़ा पीछे जाकर भारत की राजनीती  देखें तो आपको ४५० योजनाओं से भी ज्यादा के नाम नेहरू-गाँधी परिवार के नाम पर मिलेगी।  गौर करने की बात है की  आत्ममुग्धता के अशिष्ट प्रदर्शन का गुणगान करनेवाले इस भात के ऐसे स्टालवर्ड यानि 'स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी' पर सवाल उठा रहे हैं ?

कहने का अर्थ सिर्फ यही है की सही और गलत  क्या है  मालूम नहीं।  पर इतिहास यही कहता है।  जांचने  का काम आपका होना चाहिए ? अब सुनने- सुनाने  के दिन  के गए अब समय आया है चीज़ों को गहराई से देखने का , सोचने-समझने  और फिर परखने का है। पर इतने होने के बावजूद यह भी सोचिये की भारत ऐसे देश में जहाँ अभी भी कई परिवार भूखे रात  गुजारते हों ,  जहाँ एक बच्चा बिना दवाई के दम तोड़ देता हो  क्या इस प्रतिमा पर इतनी लागत की ज़रूरत थी , क्या भारत को स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की ज़रूरत थी (Do we really need Statue of Unity) ?
उम्मीद है आप जागेंगे  !!


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स्रोत: भारत का इतिहास, इंडिया आफ्टर इंडिपेंडेंस, प्लासी टू पार्टीशन आदि किताबो से व दैनिक जागरण।


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