सबसे खूबसूरत भाषा वो होती है जो रोज़ बोल चाल में इसतेमाल हो और यही भाषा का मानवीय रूप भी होता है। काशीनाथ सिंह ने इसी भाषा को उठाया है और लिख डाला है ' काशी का अस्सी ' । इस भाषा के साथ है बनारस खासकर अस्सी . वो बनारस जो भारतीय संसकृति की गंगोत्री है। वो बनारस जिसकी फ़ितरत आज़ादी, मौज और बेफिकरी है।
ये किताब बनारस की संस्कृति और समय के साथ होते उसके बदलाव के बारे में है। अस्सी किताब का हीरो है और ग्लोबलाइजेशन विलेन , जिससे अस्सी बचना चाहता है। वैसे तो, जीत ग्लोबलाइजेशन की होती है लेकिन अस्सी हारता नहीं है।
" भ्रष्टाचार लोकतंत्र के लिए ऑक्सीजन है, है कोई ऐसा राष्ट्र जहाँ लोकतंत्र हो भ्रष्टाचार न हो ? जरा नज़र दौड़ाइए पूरी दुनिया पर , ये छोटी बड़ी राजनितिक पार्टियां क्या हैं ? अलग- अलग छोटे - बड़े संसथान , भ्रष्टाचार के प्रशिक्षण केंद्र , सिद्धांत मुखौटे हैं जिनके पीछे ट्रेनिग दी जाती है . आप क्या समझते हैं , जो आदमी चुनाव लड़ने में पंद्रह बीस लाख खर्च करेगा वह विधायक बनने पर ऐसे ही छोड़ देगा आपको ? देश को ? चुतिया है क्या ?
"फिर राजनीती का मतलब क्या हुआ आचार्य ?" साथ में खड़े शैलेन्द्र ने ऐसे पूछा था जैसे चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से पूछा हो ."
"राजनीति बेरोजगारों के लिए रोजगार कार्यालय है , एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो। सब I.A.S. , P.C.S. तो नहीं हो सकता। ठेकेदारी के लिए भी धनबल -जनबल चाहिए , छोटी - मोटी नौकरी से गुजारा नही. खेती में कुछ रह नहीं गया है. नौजवान बेचारा पढ़ - लिखकर , डिग्री लेकर कहाँ जाये ? और चाहता है लंबा हाथ मारना। सुनार की तरह खुट-खुट करने वालों का हश्र देख चूका है , तो बच गयी राजनीती। वह सत्ता की है , विपक्ष की भी , और उग्रवाद की भी। .... " (काशी का अस्सी का एक अंश )
ऐसी कई संदर्भिक भाषाओँ को लेखक ने चुटकी में कह दिया है . किताब आम बोलचाल की भाषा में बिना गाली-गलौच से दूरी बनाये हुए लिखा गया है . किताब के शुरुआत में काशीनाथ सिंह कहते है कि ,-
" यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है | जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद 'परम' (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं ..."
इसी भाषा को जिसे हम घर के देहरी से बाहर निकलते ही अपना लेते हैं उसी भाषा को समाज असभ्य मानता है . इस अस्सी के भाषा के सन्दर्भ में आगे काशीनाथ सिंह कहते हैं कि ,
" 'हर हर महादेव ' के साथ 'भोंसड़ी के ' नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है ! चाहे होली का कवि सम्मलेन हो , चाहे कर्फ्यू खुलने के बाद पि. एस. सी. और ए . एस. पी. की गाडी , चाहे कोई मंत्री हो, चाहे गधे को दौडाता नंग-धन्दंग बच्चा - यहाँ तक की जोर्ज बुश या मार्गेट थैचर या गोर्बाचोव चाहे जो आ जाये (काशी नरेश को छोड़कर) - सबके लिए 'हर हर महादेव ' के साथ 'भोंसड़ी के' का जय जयकार!
फर्क इतना है कि पहला बोलना पड़ता है - ज़रा जोर लगाकर ; और दूसरा बिना बोले अपने आप कंठ से फूट पड़ता है . " (काशी का अस्सी का एक अंश )
काशी का अस्सी बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच प्रतिनिधि कहानियां हैं | जो आपस में जुडी है . कहानी के टाइटल्स इस प्रकार हैं -
उपमाओं का प्रयोग और हाजिरजवाबी बोलचाल में पढ़ने को मिलती है - जैसे, "कई सालों से सोच रहा हूँ कि कलम उठा ही लूँ" पर जवाब "उठा भी लो, कलम है कि शिवजी का धनुष " - न केवल मनोरंजक हैं, बल्कि हमारी शैली में रची बसी देवी देवताओं की कहानियों का एक मधुर अनुस्मारक भी है."
सन '92 के अयोध्या-काण्ड पर तंज कसते लेखक राजनीती में आदर्श के बारे में काशी का अस्सी का एक पात्र हरिद्वार कहता है , "आदर्श बालपोथी की चीज़ है ! वाद -विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने और पुरस्कार जितने की। आदर्श की चिंता की होती कृष्ण ने तो अर्जुन भी मारा जाता और भीम भी ! पांडव साफ हो गए होते ! आदर्श तो है पतिव्रता का लेकिन देखो तो सम्भोग किसी और से ! कोई ऐसी देवी है सम्बन्ध पति की सिवा और से न रहा हो ? आदर्श उच्चतम रखो लेकिन जियो निम्नतम -यही परम्परा रही है अपनी ! "
"और सिद्धांत ? " चेले ने पूछा।
"हज़ार बार कह चुका हूँ कि सिद्धांत सोने का गहना है ! रोज़ रोज़ पहनने की चीज़ नहीं ! शादी-ब्याह तीज-त्यौहार में पहन लिया बस ! ... "
अपने भारत में तो हफ्ते भर के भीतर सारा समीकरण बदल जाता है और सिद्धांत धरा का धरा रह जाता है। ३ अगस्त , १९९० को देवीलाल के निकाले जाने पर जो लोग 'वी. पी. सिंह जिंदाबाद' और 'देवीलाल मुर्दाबाद' बोल रहे थे ,वही लोग १५ अगस्त को मंडल आयोग की घोषणा के बाद 'वी. पी. सिंह जिंदाबाद मुर्दाबाद' बोलने लगे. सच है कि जिस देश में मुर्दा फूँकने के लिए भी घूस देना पड़ता हो वहाँ सिद्धांत और नैतिकता की कोई तरजीह नहीं रह जाती।
कई बार इस इस किताब पढ़ कर क्षोभ भी होता है कि ढकोसला मान कर आज की पीढ़ियां अच्छी कहानियों से भी वंछित हो रही हैं, और हैरानी भी | अगर आपने यह किताब नहीं पढ़ी है तो पढ़ना चाहिए . गुड रीड्स (https://www.goodreads.com) पर इस किताब को पाठकों से 5* में से 4.5 * की रेटिंग्स मिली है .
विचारधाराओं के भिन्न होते हुए भी यारियां होना, वाचाल प्रवृति की चाय की दूकान पर अधिकायत, काशी के घाटों का वाद विवाद और हर छोटी-बड़ी बात पर बहस करने की फुर्सत - यह सब शायद अब घाटों और नुक्कड़ की दुकानों से निकल कर व्हाट्सप्प ग्रुप्स और दफ्तर की टी-ब्रेक्स में जा बसी हैं | परन्तु यह उपन्यास भीड़ और दौड़ के इस युग में हमें ठहरने का सन्देश देता है | सिमटते दायरों की ओर ध्यान आकृष्ट कर एक प्रयास करता है उन्हें और सिमटने से रोकने का |
कहानियां लम्बी हैं और रोज़मर्रा की ही तरह कभी सुस्त और कभी दिलचस्प सी हैं | कम से कम एक बार अस्सी घाट को अपनी नज़रों से देखने की और प्रेरित करती हैं | काशी का अस्सी उपनयास नहीं . एक वयंगयातमक शैली में लिखा कथातमक वार्तालाप है, जिसमें कथा के नाम पर पान के खोखों और चाय की टपरियों पर सुबह शाम जमने वाला बुदधिजीवी वर्ग आपस मे बतियाता दिखता है।
जैसे की किताब का एक पात्र श्रीवास्तव जी अपने कोंग्रेसी गुरु को देखते ही कहते हैं-
काशीनाथ सिंह का उपनयास 'काशी का अस्सी ' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | इस उपनयास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संसकृति में विशुदध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपनयास को काशी की पृषठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिनदी उपनयासों से अलग रखता है | *
'काशी का अस्सी' किताब पर एक फिल्म भी बनी है जिसके निर्देशक हैं चंद्रप्रकाश द्विवेदी . यह फिल्म बनते ही विवादों से घिर गयी तथा काफी समय बाद इसमें काट-छाँटकर इसे सिनेमाघरों में रिलीज किया गया। ' मोहल्ला अस्सी ' नाम की इस फिल्म के पात्रों को जिया है Sunny Deol, Sakshi Tanwar, Ravi Kishan, Saurabh Shukla, Mukesh Tiwari, Rajendra Gupta और Mithilesh Curvehatdi ने .
ये किताब बनारस की संस्कृति और समय के साथ होते उसके बदलाव के बारे में है। अस्सी किताब का हीरो है और ग्लोबलाइजेशन विलेन , जिससे अस्सी बचना चाहता है। वैसे तो, जीत ग्लोबलाइजेशन की होती है लेकिन अस्सी हारता नहीं है।
Kashi Ka Assi -Book Review
90 के दौर की राजनीति और भारत को जानने के लिए शायद ही इससे बेहतर और मज़ेदार किताब कोई और हो। अस्सी को मूल में रखते हुए भारत की राजनीति व इसके सामाजिक व्यवस्था पर बेबाकी से बखिया उधेड़ते काशीनाथ सिंह इस किताब में कहते हैं -" भ्रष्टाचार लोकतंत्र के लिए ऑक्सीजन है, है कोई ऐसा राष्ट्र जहाँ लोकतंत्र हो भ्रष्टाचार न हो ? जरा नज़र दौड़ाइए पूरी दुनिया पर , ये छोटी बड़ी राजनितिक पार्टियां क्या हैं ? अलग- अलग छोटे - बड़े संसथान , भ्रष्टाचार के प्रशिक्षण केंद्र , सिद्धांत मुखौटे हैं जिनके पीछे ट्रेनिग दी जाती है . आप क्या समझते हैं , जो आदमी चुनाव लड़ने में पंद्रह बीस लाख खर्च करेगा वह विधायक बनने पर ऐसे ही छोड़ देगा आपको ? देश को ? चुतिया है क्या ?
"फिर राजनीती का मतलब क्या हुआ आचार्य ?" साथ में खड़े शैलेन्द्र ने ऐसे पूछा था जैसे चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से पूछा हो ."
"राजनीति बेरोजगारों के लिए रोजगार कार्यालय है , एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो। सब I.A.S. , P.C.S. तो नहीं हो सकता। ठेकेदारी के लिए भी धनबल -जनबल चाहिए , छोटी - मोटी नौकरी से गुजारा नही. खेती में कुछ रह नहीं गया है. नौजवान बेचारा पढ़ - लिखकर , डिग्री लेकर कहाँ जाये ? और चाहता है लंबा हाथ मारना। सुनार की तरह खुट-खुट करने वालों का हश्र देख चूका है , तो बच गयी राजनीती। वह सत्ता की है , विपक्ष की भी , और उग्रवाद की भी। .... " (काशी का अस्सी का एक अंश )
काशी का अस्सी ( किताब )- रिव्यू
ऐसी कई संदर्भिक भाषाओँ को लेखक ने चुटकी में कह दिया है . किताब आम बोलचाल की भाषा में बिना गाली-गलौच से दूरी बनाये हुए लिखा गया है . किताब के शुरुआत में काशीनाथ सिंह कहते है कि ,-
" यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है | जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद 'परम' (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं ..."
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इसी भाषा को जिसे हम घर के देहरी से बाहर निकलते ही अपना लेते हैं उसी भाषा को समाज असभ्य मानता है . इस अस्सी के भाषा के सन्दर्भ में आगे काशीनाथ सिंह कहते हैं कि ,
" 'हर हर महादेव ' के साथ 'भोंसड़ी के ' नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है ! चाहे होली का कवि सम्मलेन हो , चाहे कर्फ्यू खुलने के बाद पि. एस. सी. और ए . एस. पी. की गाडी , चाहे कोई मंत्री हो, चाहे गधे को दौडाता नंग-धन्दंग बच्चा - यहाँ तक की जोर्ज बुश या मार्गेट थैचर या गोर्बाचोव चाहे जो आ जाये (काशी नरेश को छोड़कर) - सबके लिए 'हर हर महादेव ' के साथ 'भोंसड़ी के' का जय जयकार!
फर्क इतना है कि पहला बोलना पड़ता है - ज़रा जोर लगाकर ; और दूसरा बिना बोले अपने आप कंठ से फूट पड़ता है . " (काशी का अस्सी का एक अंश )
काशी का अस्सी बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच प्रतिनिधि कहानियां हैं | जो आपस में जुडी है . कहानी के टाइटल्स इस प्रकार हैं -
- देख तमाशा लकड़ी का
- संतों घर में झगरा भारी
- संतों, असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी
- पाण्डेय कौन कुमति तोहें लागी
- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
उपमाओं का प्रयोग और हाजिरजवाबी बोलचाल में पढ़ने को मिलती है - जैसे, "कई सालों से सोच रहा हूँ कि कलम उठा ही लूँ" पर जवाब "उठा भी लो, कलम है कि शिवजी का धनुष " - न केवल मनोरंजक हैं, बल्कि हमारी शैली में रची बसी देवी देवताओं की कहानियों का एक मधुर अनुस्मारक भी है."
सन '92 के अयोध्या-काण्ड पर तंज कसते लेखक राजनीती में आदर्श के बारे में काशी का अस्सी का एक पात्र हरिद्वार कहता है , "आदर्श बालपोथी की चीज़ है ! वाद -विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने और पुरस्कार जितने की। आदर्श की चिंता की होती कृष्ण ने तो अर्जुन भी मारा जाता और भीम भी ! पांडव साफ हो गए होते ! आदर्श तो है पतिव्रता का लेकिन देखो तो सम्भोग किसी और से ! कोई ऐसी देवी है सम्बन्ध पति की सिवा और से न रहा हो ? आदर्श उच्चतम रखो लेकिन जियो निम्नतम -यही परम्परा रही है अपनी ! "
"और सिद्धांत ? " चेले ने पूछा।
"हज़ार बार कह चुका हूँ कि सिद्धांत सोने का गहना है ! रोज़ रोज़ पहनने की चीज़ नहीं ! शादी-ब्याह तीज-त्यौहार में पहन लिया बस ! ... "
अपने भारत में तो हफ्ते भर के भीतर सारा समीकरण बदल जाता है और सिद्धांत धरा का धरा रह जाता है। ३ अगस्त , १९९० को देवीलाल के निकाले जाने पर जो लोग 'वी. पी. सिंह जिंदाबाद' और 'देवीलाल मुर्दाबाद' बोल रहे थे ,वही लोग १५ अगस्त को मंडल आयोग की घोषणा के बाद 'वी. पी. सिंह जिंदाबाद मुर्दाबाद' बोलने लगे. सच है कि जिस देश में मुर्दा फूँकने के लिए भी घूस देना पड़ता हो वहाँ सिद्धांत और नैतिकता की कोई तरजीह नहीं रह जाती।
कई बार इस इस किताब पढ़ कर क्षोभ भी होता है कि ढकोसला मान कर आज की पीढ़ियां अच्छी कहानियों से भी वंछित हो रही हैं, और हैरानी भी | अगर आपने यह किताब नहीं पढ़ी है तो पढ़ना चाहिए . गुड रीड्स (https://www.goodreads.com) पर इस किताब को पाठकों से 5* में से 4.5 * की रेटिंग्स मिली है .
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित काशीनाथ सिंह की यह पुस्तक ' काशी का अस्सी ' , नब्बे के दौर की राजनीति और उस तत्कालीन समाज का आम चित्रण है । उस दौर के भारत को जानने के लिए शायद ही इससे बेहतर और मज़ेदार किताब कोई और हो। बहुत समय बाद कुछ ऐसा पढ़ा है जिसे पढ़ कर लोटपोट हो गया हूँ।
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विचारधाराओं के भिन्न होते हुए भी यारियां होना, वाचाल प्रवृति की चाय की दूकान पर अधिकायत, काशी के घाटों का वाद विवाद और हर छोटी-बड़ी बात पर बहस करने की फुर्सत - यह सब शायद अब घाटों और नुक्कड़ की दुकानों से निकल कर व्हाट्सप्प ग्रुप्स और दफ्तर की टी-ब्रेक्स में जा बसी हैं | परन्तु यह उपन्यास भीड़ और दौड़ के इस युग में हमें ठहरने का सन्देश देता है | सिमटते दायरों की ओर ध्यान आकृष्ट कर एक प्रयास करता है उन्हें और सिमटने से रोकने का |
कहानियां लम्बी हैं और रोज़मर्रा की ही तरह कभी सुस्त और कभी दिलचस्प सी हैं | कम से कम एक बार अस्सी घाट को अपनी नज़रों से देखने की और प्रेरित करती हैं | काशी का अस्सी उपनयास नहीं . एक वयंगयातमक शैली में लिखा कथातमक वार्तालाप है, जिसमें कथा के नाम पर पान के खोखों और चाय की टपरियों पर सुबह शाम जमने वाला बुदधिजीवी वर्ग आपस मे बतियाता दिखता है।
जैसे की किताब का एक पात्र श्रीवास्तव जी अपने कोंग्रेसी गुरु को देखते ही कहते हैं-
" तेरे हुसन का हुक्का बुझ गया है ,
एक हम हैं की गुड़गुडाये जाते हैं . "
काशीनाथ सिंह का उपनयास 'काशी का अस्सी ' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | इस उपनयास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संसकृति में विशुदध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपनयास को काशी की पृषठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिनदी उपनयासों से अलग रखता है | *
'काशी का अस्सी' किताब पर एक फिल्म भी बनी है जिसके निर्देशक हैं चंद्रप्रकाश द्विवेदी . यह फिल्म बनते ही विवादों से घिर गयी तथा काफी समय बाद इसमें काट-छाँटकर इसे सिनेमाघरों में रिलीज किया गया। ' मोहल्ला अस्सी ' नाम की इस फिल्म के पात्रों को जिया है Sunny Deol, Sakshi Tanwar, Ravi Kishan, Saurabh Shukla, Mukesh Tiwari, Rajendra Gupta और Mithilesh Curvehatdi ने .
मोहल्ला अस्सी फिल्म ट्रेलर :
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