भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी के अभी दो दिन भी नहीं बीते थे कि 25 मार्च 1931 को पूरे देश में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच मनमुटाव ने एक बड़े दंगे का रूप ले लिया और कानपुर भी इससे अछूता नहीं रहा।
गाँधीवादी विचारधारा के अनुयायी जब गणेश को दंगों की जानकारी मिली तो वे अकेले ही एक खास समुदाय बहुल इलाके में दंगों को रोकने के लिए निकल पड़े किन्तु दंगों को रोकने के इस प्रयास का परिणाम हुआ उनकी हत्या। कानपुर के चौबे गोला चौराहे के पास चाकू घोंप कर गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ की हत्या कर दी गई।
दरअसल गणेश शंकर गाँधीवादी विचारों एवं क्रांतिकारी व्यक्तित्व का सम्मिश्रण थे। उन्होंने कभी नहीं देखा कि जिसकी आलोचना वे कर रहे हैं, वह किस धर्म का है, किस वर्ग का है। अमीर है अथवा गरीब। जमींदार है या पूँजीपति। उनके लिए तो बस अन्याय, अन्याय था और अन्याय करने वाला दोषी।
हिंदुओं के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने मुस्लिम समुदाय को भी निशाने पर लिया. अपने लेख में वे कहते हैं, ‘ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं. ये जगह उनकी जन्मभूमि नहीं है.’ उन्होंने आगे ऐसे लोगों को अपने देश की महत्ता समझाते हुए कहा है, ‘इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे.'
आज भारत के एक ऐसे पत्रकार की पुण्यतिथि है जिसके जीवन की व्याख्या अपने नैरेटिव के हिसाब से सबने अलग-अलग की।धर्मनिरपेक्षता, निष्पक्षता और प्रश्न करने का नाटक करने वाले लोग उन्हें उलाहना देंगे जो उनकी तरह नहीं हैं। गणेश हर उस पत्रकार से, हर उस लोग से प्रश्न करते जो हिंदुओं को उनके धर्म के कारण दोयम दर्जे का मानता आया है। तब यही लोग गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ को भी ‘भक्त’ का ठप्पा देते।।
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