‘जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत’ अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा गिया गया यह मंत्र
अक्सर ही कश्मीर में तथा कश्मीर से सम्बंधित बाटन में अक्सर अलापा जाता है और एक उदाहरण, “हिन्दू बहुल गाँव ने मुस्लिम शख्स
को चुना पञ्च‘ विगत दिनों के पंचायत चुनावों में भद्रवाह शहर के एक हिन्दू बहुल
गांव में जिसमे लगभग ४५० परिवारों में सिर्फ परिवार मुस्लिम है उस परिवार के चौधरी मोहम्मद हुसैन (५४ ) को निर्विरोध अपना पञ्च चुन लिया“ को कश्मीर की जमीनी सच्चाई
बनाकर पेश किया जाता है . लेकिन हक़ीक़त क्या है? क्या जम्मू कश्मीर का इतिहास भी वही है जो आजकल के बड़बोले एलिट क्लास अक्सर पात्र-पत्रिकाओं , टीवी के चर्चाओं में करते हैं ? धरती का स्वर्ग , इंसानियत का दोज़ख़ (नर्क) बन चूका जम्मू -कश्मीर का एक ऐतिहासिक नजरिया भी है आइये उसको उसी के चश्मे से देखने का कोशिश करते हैं।
historical view of ammu-Kashmir- and its democracy |
इतिहास के नज़र में जम्मू-कश्मीर और उसका जम्हूरियत
बात जम्हूरियत (Democracy) की करें तो २६ अक्टूबर १९४७ में भारतीय
अर्थव्यवस्था से जुड़ने के उपरांत सन १९५२ में जम्मू कश्मीर के विधान सभा के निर्णय
के अनुसार वहां राजशाही का अंत हुआ और जम्हूरियत की नींव पड़ी और तब से लेकर आजतक
भारत के इस प्रान्त में आठ बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है. जम्मू कश्मीर में सबसे
लम्बे समय तक राष्ट्रपति शासन १९९०-१९९६ के बीच लगा जब पूरे प्रदेश में इस्लामिक
चरमपंथियों ने कब्ज़ा कर लिया और करीब पंद्रह लाख कश्मीरी पंडितों को १९ जनवरी १९९०
को रातों रात खदेड़ दिया.
निर्देशक रोहित शेट्टी ने बनाया सिंघम को मत देने वाली फिल्म सिम्बा
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इतिहास पलटें तो मालूम होता
है कि पहली शताब्दी में कश्मीर हिन्दू धर्म का प्रमुख केंद्र था, फिर बौद्ध और शैव
परम्परा भी कश्मीर घाटी में फली फूली. विभिन्न पंथों के उदय और उनके एक दुसरे पर
प्रभाव और मिश्रण की प्रक्रिया अनवरत तेरहवीं शताब्दी तक चली . फिर आया इस्लाम का
दौर जो कश्मीर के प्रगतिशील समाज और साहित्य पर ग्रहण साबित हुआ . इस संक्रमण काल
में संस्कृत की जगह फारसी ने ले ली ; वेदों-पुरानों की जगह शरिया ने ली .
ललिताद्त्य के जैसे राजाओं की परम्परा के जगह सुलतान सिकंदर जैसे
शासको का परचम था . कभी हिन्दू बहुल रही कश्मीर घाटी अपनी अस्तित्व खो रही थी .
मंदिरों का विध्वंश और जबरन धर्मं परिवर्तन के बीच इस्लाम का उदय हो रहा था .
कल्हण का कश्मीर बदल रहा था , ऋषि कश्यप के आँखों में आंसू थे और गंगा जमुनी तहजीब
हंस रही थी .
मध्यकाल से लेकर अबतक
कश्मीर में इस्लाम का प्रभाव है . और तब से लेकर अब तक वहाँ पर रह रहे गैर
मुस्लिमों पर तरह तरह के अत्याचार और अनाचार हो रहे हैं. ऐसे इतिहास और वर्तमान को
भूल जब हम कश्मीरियत और इंसानियत का राग अलापते हैं तो निश्चित रूप से हम अपने
पूर्वजों की क़ुरबानी का मखौल बनाते हैं.
आलेख : अमित पांडेय
आलेख : अमित पांडेय
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